परिचय
भारतीय संस्कृति में मित्रता को अत्यंत पवित्र और उच्च स्थान प्राप्त है। सच्ची मित्रता वह होती है जो स्वार्थरहित हो, जिसमें मान-सम्मान, धन-दौलत या पद का कोई स्थान न हो। ऐसी ही दिव्य और अनुपम मित्रता का उदाहरण हैं द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण और उनके बालसखा सुदामा। यह कथा केवल मित्रता की नहीं, बल्कि भक्ति, नम्रता और समर्पण की भी प्रतीक है।
बचपन की मित्रता
श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता की शुरुआत गुरुकुल से हुई थी। दोनों ने गुरु संदीपनि के आश्रम में एक साथ अध्ययन किया। गुरुकुल में रहते हुए वे एक-दूसरे के सुख-दुःख में सहभागी बने। कृष्ण के राजवंशी होने के बावजूद वे सुदामा जैसे निर्धन ब्राह्मण के साथ बराबरी से प्रेम करते थे।
एक दिन की घटना विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जब दोनों जंगल में लकड़ी बटोरने गए थे, तभी तेज बारिश होने लगी। भीगते हुए भी वे एक पेड़ के नीचे बैठकर घंटों बातें करते रहे। यह वही मित्रता थी जो जीवन भर अटूट रही।
सुदामा की गरीबी और विनम्रता
गुरुकुल से शिक्षा समाप्त होने के बाद श्रीकृष्ण द्वारका लौट गए और राजा बन गए। वहीं सुदामा अपने साधारण जीवन में ब्राह्मण धर्म निभाते हुए कठिन परिस्थितियों में भी संतोषपूर्वक जीते रहे। उनकी पत्नी ने एक दिन उनसे आग्रह किया–
“आप श्रीकृष्ण के पास जाइए। वे आपके बालसखा हैं। अवश्य ही सहायता करेंगे।”
सुदामा संकोचवश तैयार नहीं हुए क्योंकि उन्हें मित्रता में लेन-देन का कोई भाव नहीं चाहिए था। किंतु पत्नी के आग्रह पर वे चिउड़े (पोहे) की पोटली लेकर द्वारका के लिए निकल पड़े।
द्वारका में कृष्ण का स्वागत
जब सुदामा द्वारका पहुंचे और कृष्ण को समाचार मिला कि उनके सखा आए हैं, तो वे नंगे पाँव दौड़ पड़े। द्वारपाल भी आश्चर्यचकित रह गए। द्वारकाधीश ने सुदामा को गले लगाया, अपने सिंहासन पर बैठाया और उनके चरण धोए।
यह दृश्य दर्शाता है कि सच्चे मित्र के लिए राजा और रंक का कोई भेद नहीं होता। श्रीकृष्ण ने सुदामा से उनकी पोटली लेकर प्रेमपूर्वक चिउड़े खाए और उनकी भावनाओं को सर्वोच्च मान दिया।
बिना मांगे मिला आशीर्वाद
सुदामा ने श्रीकृष्ण से अपनी गरीबी की शिकायत नहीं की, न ही किसी प्रकार की सहायता माँगी। वे केवल अपने मित्र से मिलने और उनका सानिध्य पाने आए थे। किंतु श्रीकृष्ण सर्वज्ञ थे। उन्होंने सुदामा के हृदय की व्यथा को समझ लिया और बिना कहे ही उन्हें समृद्धि का आशीर्वाद दे दिया।
जब सुदामा अपने घर लौटे तो देखा कि उनकी झोपड़ी एक भव्य महल में बदल गई है। जीवन की सारी कठिनाइयाँ समाप्त हो चुकी थीं।
संदेश
श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता हमें यह सिखाती है कि –
- सच्ची मित्रता में स्वार्थ नहीं होता।
- प्रेम का मूल्य भौतिक वस्तुओं से कहीं अधिक है।
- विनम्रता और समर्पण सच्चे संबंधों की नींव होते हैं।
- भगवान अपने भक्तों की भावना देखते हैं, दान या उपहार नहीं।
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण-सुदामा की कथा केवल एक पुरानी कहानी नहीं, बल्कि जीवन का आदर्श है। जब मित्रता में प्रेम, निष्ठा और समर्पण हो तो वह समय, दूरी और परिस्थितियों की सीमाओं से परे जाकर सदैव अटूट रहती है। यही कारण है कि यह दिव्य मित्रता युगों-युगों तक मानव समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी रहेगी।
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